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बलबन की जीवनी एवं उपलब्धियों पर प्रकाश डालें।अथवा, बलबन की जीवनी चरित्र एवं उपलब्धियों पर प्रकाश डालें।

प्रश्न 1. बलबन की जीवनी एवं उपलब्धियों पर प्रकाश डालें।
अथवा, बलबन की जीवनी चरित्र एवं उपलब्धियों पर प्रकाश डालें।

उत्तर- दास वंश के सुल्तानों में बलबन का स्थान अन्यतम है। उसका मूल नाम बहाउद्दीन था। वह इल्बरी कबीले का तुर्क था। उसका पिता दस हजार परिवारों का खान या सरदार था। इससे यह ज्ञात होता है कि वह एक उच्च परिवार में उत्पन्न हुआ था। बहाउद्दीन बचपन में मंगोलों के हाथों पड़ गया, जिन्होंने उसे बगदाद लाकर बसरा के ख्वाजा जमालुद्दीन के हाथों बेच दिया। जमालुद्दीन उसे अन्य दासों के साथ 1232 ई० में दिल्ली लाया। सुल्तान इल्तुतमिश ने उसे खरीद लिया और उसे अपना खासदार बना लिया। उसमें होनहार के लक्षण थे, अतः इल्तुतमिश ने उसे चालीस तुर्क गुलामों के प्रसिद्ध दल का सदस्य बना दिया। अपनी बुद्धि, योग्यता तथा स्वामिभक्ति के कारण वह उन्नति करता गया। रजिया के शासन-काल में वह अमीर-ए-शिकार के पद पर पहुँच गया। उसने रजिया को अपदस्थ करने वाले तुर्क सरदारों का साथ दिया। रजिया के बाद बहराम के शासनकाल में बलबन ने विशेष उन्नति की। वह  अमीर-ए-आखुर के पद पर नियुक्त किया गया। बाद में वह रेबड़ी का जागीरदार बनाया गया। उसने अपनी जागीर का सुप्रबन्ध किया। प्रसन्न होकर सुल्तान ने उसे हाँसी की भी जागीर दे दी। 1244 ई० में सुल्तान मसूद ने उसे अमीर-ए-हाजिब के पद पर नियुक्त किया। इसी समय बलबन को अपनी असाधारण सैनिक प्रतिभा का परिचय देने का अवसर प्राप्त हुआ। सन् 1246 ई० में मंगोल सरदार मंगू ने आक्रमण कर उच्छ का घेरा डाल दिया था। बलबन ने उसे घेरा उठाने के लिए बाध्य कर दिया, चूँकि बलबन ने सुल्तान मसूद को अपदस्थ कर नासिरुद्दीन महमूद को गद्दी पर बैठाने में निर्णायक भाग लिया था, अतः महमूद के शासनकाल में बलबन का प्रभाव बढ़ जाना स्वाभाविक हो गया। वह नायब-ए-मुमालिकात के पद पर नियुक्त किया गया।

नायब के पद पर पहुँचते ही बलबन ने अपनी स्थिति के सुदृढ़ीकरण की ओर ध्यान दिया। उसने सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद से अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। इसके बाद सल्तनत के उच्च पदों पर अपने-सगे संबंधियों को नियुक्त करने लगा। उसने अपने भाई कश्लू खाँ को अमीर-ए-हाजिब के पद पर नियुक्त किया तथा अपने चचेरे भाई शेर खाँ को भटिंडा और का सूबेदार बना दिया। वजीर का पद नायब के आगे गौण पड़ गया। वजीर अबू बक ने नायब के अधीन रहना स्वीकार कर लिया।

बलबन की बढ़ती शक्ति को देखकर अन्य तुर्की सरदार घबड़ा गये और वे उससे ईर्ष्या करने लगे। वे उसे अपदस्थ करने की चेष्टा में लग गये। इसी समय इमामुद्दीन रायहन के नेतृत्व में हिन्दुस्तानी दल का उत्कर्ष हुआ। बात यह थी कि तुर्क शासक सल्तनत के उच्च पदों पर अपने सगे-संबंधियों को नियुक्त करते थे और वे हिन्दुस्तानियों, चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, को अत्यन्त हेय दृष्टि से देखते थे। उन्हें छोटे-छोटे पदों पर बहाल किया जाता था। इसके प्रतिक्रियास्वरूप ही हिन्दुस्तानी दल का उत्कर्ष हुआ। रायहन ने अत्यन्त राजनीतिक पटुता से सुल्तान नासिरुद्दीन को अपने पक्ष में कर लिया और बलबन की निरंकुशता के विरुद्ध सुल्तान के कान भर दिये। सुल्तान षड्यंत्रकारियों की चाल में आ गया। उसने बलबन और उसके भाइयों को अपदस्थ करने के लिए आदेश जारी कर दिये। बलबन को पदच्युत कर उसे हाँसी की जागीर दे दी गयी। रायहन को वकीलदार या प्रधान मंत्री बनाया गया। वह सुल्तान का प्रियमात्र बन गया। तुर्कों को उच्च पदों से हटाकर उसने उनके स्थान पर हिन्दुस्तानी मुसलमानों को नियुक्त किया।

रायहन के उपर्युक्त कार्यों से तुर्क सरदार रुष्ट हो गये और बलबन से जा मिले। 1254 ई० में उसकी संयुक्त सेना राजधानी की ओर चल पड़ी। पहले तो सुल्तान लड़ने को तैयार हो गया, लेकिन बाद में उसका साहस टूट गया। विद्रोहियों का प्रस्ताव मानकर उसने रायहन को पदच्युत कर दिया। 1255 ई० में बलबन पुनः नायब के पद पर नियुक्त किया गया। बलबन का प्रबल समर्थक मिनहाज को काजी के पद पर नियुक्त किया गया। रायहन को बदायूँ भेज दिया गया।

इल्तुतमिश के निर्बल उत्तराधिकारियों के शासनकाल में हिन्दू राज्यों को शक्ति संवर्द्धन करने का अवसर मिला था। हिन्दू राजे तुर्की जुआ उतार फेंकने के लिए उत्सुक थे। उन पर काबू पाना बलबन के लिए जरूरी हो गया। उसने पहले दोआब और कटेहार (आधुनिक रूहेलखंड) के विद्रोहियों का दमन किया। यमुना की उपजाऊ घाटी में उसने एक प्रसिद्ध सामन्त को पराजित किया जिसे चन्देल वंश का त्रैलोच्य वर्मा कहा गया है। बलबन ने उत्पाती मेवातियों को दबाये रखा। रणथम्भौर में चौहान राजपूतों की शक्ति बढ़ गयी थी। उसने वहाँ कई बार आक्रमण किये तथा बूँदी और चित्तौड़ तक धावे मारे, किन्तु इन सैनिक अभियानों का कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ा। बलबन ने नश्वर, चन्देरी एवं ग्वालियर के हिन्दू राजा चाहरदेव के शक्तिदमन के लिए भी प्रयास किया, किन्तु इस अभियान में उसे लूटे धन मिलने के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिला।

कुछ प्रान्तीय सूबेदारों ने अवसर पाकर अपने को दिल्ली सल्तनत से उन्मुक्त करने का प्रयास किया। 1249 ई० में सैफुद्दीन कार्ल्ग ने मुल्तान पर अधिकार कर लिया, किन्तु बलबन ने उसे शीघ्र ही वहाँ से भगा दिया। मुल्तान और उच्छ के सूबेदार कश्लू खाँ ने दिल्ली के प्रभुत्व से अपने मुक्त करने ईरान के मंगोल नेता हलाकू का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। उसने अवध के सूबेदार कुतलग खाँ से सन्धि कर ली और दोनों ने मिलकर दिल्ली पर आक्रमण करने की योजना बनायी, किन्तु बलबन ने उनकी योजना को विफल कर दिया।

मंगोलों ने पश्चिमोत्तर सीमा प्रदेश में अपना प्रभाव स्थापित कर लिया था। उन्होंने मुल्तान और लाहौर पर अनेक धावे मारे और खूब लूटपाट मचायी। इसी समय पंजाब के विद्रोही कबीले खोखरों ने विद्रोह कर दिया। 1246 ई० में बलबन ने उनके विद्रोह को दबा दिया। सिन्धु-पार पड़ी हुई मंगोल सेना को जब इसकी खबर मिली, तो वह पीछे लौट गयी। 1259 ई० में बलबन ने मंगोल नेता हलाकू के एक दूत-मंडल का बड़ा स्वागत किया। डॉ. पी. सरन के शब्दों में, “तमाम मालिकों और अमीरों की सेनाएँ जिनकी संख्या 2,00,000 पैदल और 50,000 घुड़सवारों की थी, हौज रानी के सामने कतार बाँधकर खड़ी की गयीं। इस प्रदर्शन के आगन्तुक बड़े प्रभावित हुए। फिर वे नगर
के अन्दर ले जाये गये जहाँ पर राजमहल के अन्दर उनका बड़े समारोह के साथ स्वागत किया गया। दूतों ने अपने सम्राट् हलाकू की ओर से विश्वास दिलाया कि मंगोलों के आक्रमण बन्द कर दिये जाएंगे।

इस प्रकार, बलबन ने 20 वर्षों (1246-1266) तक सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद के नायब की हैसियत से अनेक कार्यों का सम्पादन किया। इस बीच शासन की वास्तविक बागडोर उसके हाथ में आ गयी। उसने राज्य में शान्ति-व्यवस्था स्थापित करने का प्रयत्न किया जिससे वह बड़ा लोकप्रिय हो गया। महमूद के निधन के बाद वह सुल्तान के पद पर पहुँच गया।


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