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1857 ई० के विद्रोह के कारणों पर प्रकाश डालिए | 1857 ई० की क्रांति के स्वरूप एवं महत्त्वों पर प्रकाश डालें।अथवा, 1857 ई० की क्रांति के स्वरूप और प्रभावों पर प्रकाश डालें।

प्रश्न -1857 ई० की क्रांति के स्वरूप एवं महत्त्वों पर प्रकाश डालें।
अथवा, 1857 ई० की क्रांति के स्वरूप और प्रभावों पर प्रकाश डालें।

उत्तर- अँग्रेज को देश से निकाल-बाहर करने के लिए सन् 1857 ई० में क्रान्ति हो गयी। इसके निम्नलिखित कारण थे—
1. राजनीतिक कारण- सन् 1857 ई० की प्लासी विजय के पश्चात् अंग्रेजों ने छल-बल से भारत में अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। भारत में अँग्रेजों का प्रवेश व्यापारी के रूप में हुआ था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी जिसकी स्थापना सन् 1600 ई० में हुई थी। उसका मुख्य उद्देश्य भारत में व्यापार करना था, किन्तु कालान्तर में यह कम्पनी भारत की राजनीति में गहरी दिलचस्पी लेने लगी। क्लाइव ने पलासी और बक्सर के युद्धों में विजय प्राप्त कर यह निश्चित कर दिया
कि भविष्य में अँग्रेज ही भारत के शासक बनेंगे। वारेन हेस्टिंग्स, वेलेस्ली एवं लॉर्ड डलहौजी ने उग्र साम्राज्यवादी नीति का अवलंबन कर एक-एक कर सभी भारतीय राज्यों को जीत लिया।
    अँग्रेजों ने मुगल सम्राट के साथ बड़ा अपमानजनक व्यवहार किया। उन्होंने बक्सर के युद्ध (सन् 1765 ई०) में मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय को परास्त कर उसे कैद कर लिया। अंग्रेजों ने देशी नरेशों के राजनीतिक अधिकारों का अन्त कर उनका आर्थिक शोषण किया। अवध को किस तरह लूटा गया एवं वहाँ की बेगमों के साथ किस तरह का अमानुषिक व्यवहार किया गया | यह सर्वविदित है। मैसूर के हैदर तथा टीपू जैसे स्वतंत्रता प्रेमी सेनानियों का अन्त किया गया।
युद्ध-प्रिय मराठों को भी परास्त किया गया। तंजौर और कर्नाटक के हिन्दू राजवंशों का अन्त कर दिया गया। झाँसी, नागपुर, उदयपुर, संभलपुर आदि सभी-के-सभी ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित कर लिए गए।
2. सामाजिक कारण- सन् 1857 ई० की क्रांति के सामाजिक कारणों में उच्चवर्ग की उपेक्षा, विदेशी सभ्यता का प्रचार और भारतीय सामाजिक आचार-व्यवहार में हस्तक्षेप है। देशी राज्यों के विनाश तथा कम्पनी के राज्य-विस्तार के साथ एक शक्तिशाली ब्रिटिश अधिकारी वर्ग का जन्म हुआ। भारतीय समाज पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा। भारतीय सामाजिक जीवन इससे अस्त-व्यस्त हो गया। भारतीय समाज में इस नवोदित ब्रिटिश नौकरशाही के प्रति कोई श्रद्धा या
सहानुभूति न थी।
    साम्राज्यवादी ऐसा कहा करते थे कि पिछड़े हुए देशों के अशिक्षित, असभ्य और असंस्कृत लोगों को शिक्षित, सभ्य और सुसंस्कृत बनाने का भार 'गोरे लोगों' पर है। अंग्रेजों ने भी भारत विजय के बाद यहाँ अपनी सभ्यता, संस्कृति और शिक्षा को लादने का प्रयत्न किया। उनकी सभ्यता-संस्कृति बिल्कुल भिन्न थी। भारतीय इसे शीघ्र आत्मसात् नहीं कर सकते थे। उन्होंने यह समझा कि अँग्रेज उनकी सभ्यता-संस्कृति और शिक्षा को नष्ट करने पर तुले हुए हैं| इतना ही
नहीं, कुछ रुढ़िवादी एवं अशिक्षित भारतीयों ने तो लॉर्ड डलहौजी के रेल, डाक-तार आदि वैज्ञानिक
अनुसंधानों में प्रयोग का भी विरोध किया।
3. धार्मिक कारण- अँग्रेजो ने प्रत्यक्षरूप से राज्य की ओर से भारतीय जनता के धर्म में कोई हस्तक्षेप नहीं किया, लेकिन उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से ईसाई धर्म के प्रचार में बड़ा सहयोग दिया। ईसाई धर्मप्रचारकों को आर्थिक सहायता, राजकीय संरक्षण तथा प्रोत्साहन दिया जाता था। ईसाई धर्म-प्रचारक बड़े उदण्ड थे। वे मूर्तिपूजक हिन्दुओं की तीव्र भर्त्सना करते थे। यहाँ तक कि वे सर्वसाधारण के सामने खुले रूप में हिन्दू-मुस्लिम धर्मों की निन्दा करते थे। वे उनके महापुरुष, अवतारों और पैगम्बरों को गालियाँ दिया करते थे। ऐसी स्थिति में हिन्दू और मुस्लिम
ईसाई धर्म प्रचारकों के कट्टर शत्रु बन गए।
4. आर्थिक कारण– सन् 1857 ई० की क्रांति के अन्तर्गत घरेलू उद्योग-धंघों का नाश, आर्थिक शोषण, बेकारी की समस्या आदि है। बंगाल में द्वैध शासन (सन् 1767-75 ई०) के समय कम्पनी ने वहाँ के व्यापार पर एकाधिकार स्थापित कर लिया। इससे छोटे-छोटे उद्योग-धन्धों को बड़ा नुकसान पहुँचा। मात्र इतना ही नहीं, कुशल बुनकरों के हाथ में अंगुलियाँ तक काट डाली गयीं। अंग्रेज पूँजीपतियों ने पूँजी लगाकर काफी मुनाफा कमाया। कम्पनी के भ्रष्ट कर्मचारियों ने तो वहाँ के लोगों से मनमाना पैसा वसूल किया और अवकाश प्राप्त हो जाने पर वे अपनी जिन्दगी भर की कमाई लेकर अपने देश लौट जाते थे।
    सन् 1856 ई० में भारतीय सैनिकों की संख्या दो लाख तैंतीस हजार थी और अंग्रेजों की संख्या केवल छियालीस हजार थी। सेना विभाजन बहुत ही गलत ढंग पर हुआ। कई स्थानों पर जैसे- दिल्ली और इलाहाबाद में तो सिर्फ भारतीय सैनिक ही थे। इन दोनों के बीच मात्र दानापुर में ब्रिटिश रेजीमेंट थी। इन दिनों इंग्लैण्ड क्रीमिया, पर्शिया और चीन के युद्धों में व्यस्त था। भारत में तो केवल भारतीय सैनिकों का ही बाहुल्य था, अतः उनमें शक्ति जागरूकता की भावना का आना स्वभाविक था।
    देशी राज्यों को कम्पनी राज्य में सम्मिलित किए जाने से देशी राज्यों की सेना भंग कर दी गयी। इससे बहुत से सैनिक बेकार हो गए। केवल अवध में 60 हजार सैनिक बेकार पड़ गए। इन लोगों ने क्रान्ति के समय विद्रोहियों का साथ दिया।
    सन् 1857 ई० की क्रान्ति का तत्कालिक कारण चर्बीवाले कारतूस हैं। इन दिनों सैनिकों को एक नयी तरह की कारतूस दी गयी, जिसे दाँत से काटकर प्रयोग किया जाता था। अफवाह फैल गयी कि इन कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी है। इससे हिन्दू और मुस्लिम भड़क उठे। बस यहीं से क्रान्ति का सूत्रपात हो गया। भारतीय सैनिकों ने चर्बीवाले कारतूस का प्रयोग करने से इंकार कर दिया और 29 मार्च, 1587 ई० को मंगल पांडेय नामक सैनिक ने विद्रोह का झंडा खड़ा कर दिया। उसने एक अँग्रेज अफसर की हत्या कर दी। मंगल पांडेय को बन्दी बना लिया गया और
उसे मौत की सजा दी गयी। इसके बाद भारतीय सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। सन् 1857 ई० का महान् विद्रोह आरम्भ हो गया। देखते-ही-देखते मेरठ, दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, बुन्देलखंड, बिहार आदि राज्यों में विद्रोह फैल गया।
    परिणाम– परिणाम और महत्व के दृष्टिकोण से 1857 ई० का विद्रोह आधुनिक भारतीय इतिहास की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना माना जा सकता है। इसके निम्नलिखित परिणाम हुए-
मुगल शासन की समाप्ति- बहादुरशाह को गद्दी से हटाकर, कैद करके रंगून ले जाया गया। वहीं 1862 ई० में उनकी मृत्यु हो गई। उनके उत्तराधिकारियों की हत्या पहले ही की जा चुकी थी। अतः, बहादुरशाह के साथ ही भारत में मुगलों का शासन समाप्त हो गया।
 कंपनी शासन का अंत— विद्रोह ने भारत में कंपनी शासन को भी समापत कर दिया। 1858 ई० के भारत सरकार अधिनियम के अनुसार भारत का प्रशासन कंपनी से लेकर ब्रिटिश ताज के प्रतिनिधि भारतीय राज्य सचिव को सौंप दिया गया। उसे प्रशासन में सहायता देने के लिए 15 सदस्यी इंडिया कौंसिल बनाया गया।
गवर्नर-जनरल की स्थिति में परिवर्तन- वह ब्रिटिश ताज का भारत में वैयक्तिक प्रतिनिधि बन गया। उसका पद अधिक गौरवमय बन गया। उसके अधिकार भी बढ़ गए। वह 5 सदस्यीय कार्यकारिणी की सहायता से शासन करता था। भारतीय रियासतों के साथ संबंध निश्चित करने से वायसराय की उपाधि धारण करने का अधिकार मिला। इन प्रशासनिक परिवर्त्तनों के परिणामस्वरूप अब भारत का शासन सीधा इंग्लैण्ड से नियंत्रित हो गया। लॉर्ड कैनिंग भारत का प्रथम वायसराय बना।
सरकारी नति में परिवर्तन - 1858 ई० के घोषणापत्र में महारानी विक्टोरिया ने सरकारी नीति में परिवर्त्तन की घोषणा की। अब भारत में विस्तारवादी नीति त्याग दी गई। देशी नरेशों के अधिकार और सुविधाएँ वापस कर उन्हें अँग्रेजी अधिसत्ता के अन्तर्गत ले लिया गया। भारतीयों के रीति रिवाजों और परंपराओं की सुरक्षा तथा बिना विभेद के सरकारी नौकरी का आश्वासन दिया गया।
सेना का गठन– विद्रोह के बाद सेना का पुर्नगठन किया गया। पील कमीशन की सिफारिशों के आधार पर भारतीय सिपाहियों की संख्या घटा दी गई और उन्हें महत्त्वपूर्ण स्थानों से हटा दिया। गया। सिपाहियों की भर्ती में सैनिक वर्ग के लोगों को प्रमुख स्थान दिया गया।
जातीय विभेद का बढ़ना- विद्रोह के बाद सरकार ने हिन्दू-मुसलमानों में विभेद पैदा कर उनकी एकता को तोड़ दिया। मुसलमानों के साथ अधिक अनुदारता दिखाई गई। अतः हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य बढ़ा।
सामाजिक- आर्थिक प्रभाव-विद्रोह के परिणामस्वरूप सामाजिक एकता नष्ट हुई तथा वर्ग-संघर्ष की भावना बलवती हुई। भारत की अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई। साथ ही, औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया भी बढ़ी जिसने पूँजीपति वर्ग को जन्म दिया।
महत्त्व- 1857 ई० के विद्रोह का महत्त्व इस बात में निहित है कि इसने राष्ट्रीयता की भावना को विकसित किया। विद्रोह की विफलता ने स्पष्ट कर दिया कि सभी वर्गों के सहयोग और समर्थन के अभाव में सिर्फ सैनिक शक्ति के बल पर अंग्रेजों को परास्त नहीं किया जा सकता। अतः भारतीयों में एकता की भावना जगाने का प्रयास आरंभ कर दिया गया। इस प्रकार, भारतीय राष्ट्रवाद की धारणा का विकास आरंभ हुआ। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से यह धारणा बलवती
हो गई। इसने अंग्रेजी विरोध को एक नई और निश्चित दिशा दी जिसका परिणाम 1885 ई० में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना और राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का आरंभ था।

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